A Teacher’s Journey एक शिक्षक की यात्रा
सूरज की पहली किरणें शहर को जगा रही थीं जब मैं, अनुराग सिंह, नए विद्यालय की ओर बढ़ रहा था। मेरे मन में उत्साह और थोड़ी सी घबराहट थी। यह मेरा पहला दिन था एक शिक्षक के रूप में, और मैं इस नए अध्याय को लेकर बेहद उत्सुक था।
विद्यालय का प्रांगण छात्रों की कोलाहल से गूंज रहा था। मैं अपनी कक्षा की ओर बढ़ा, मन में यह सोचते हुए कि आज का दिन कैसा रहेगा। कक्षा में प्रवेश करते ही मेरी नज़र उस लड़की पर पड़ी जो कोने में अकेली बैठी थी। अन्य छात्राओं से अलग-थलग, दुबली-पतली, सांवली और भोली-भाली सी। उसकी आँखें नीचे झुकी हुई थीं, मानो वह किसी से नज़रें मिलाने से डर रही हो।
मैंने अपना परिचय दिया और पाठ शुरू किया। पूरे समय, मेरी नज़र उस लड़की पर जाती रही। वह शांत थी, बिल्कुल शांत। न कोई सवाल, न कोई प्रतिक्रिया। मुझे लगा कि शायद वह शर्मीली है।
एक सप्ताह बीत गया। मैंने नोटिस किया कि वह लड़की, जिसका नाम अंजलि था, हमेशा ऐसे ही रहती थी। कभी सवाल नहीं पूछती, न ही कॉपियां चेक कराती। मैंने सोचा कि शायद मुझे उससे बात करनी चाहिए, लेकिन हर बार कुछ न कुछ आड़े आ जाता।
फिर वह दिन आया जो मेरे जीवन को बदल देने वाला था। मैं कक्षा में पहुंचा तो देखा कि अंजलि रो रही थी। उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। कुछ छात्राएं उसे सांत्वना दे रही थीं।
“क्या हुआ बेटा?” मैंने पूछा। लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया। मैंने फिर पूछा, इस बार थोड़ा कठोर स्वर में। अंजलि उठकर जाने लगी, और तभी मुझे पता चला कि उसका एक पैर विकलांग था। मैं स्तब्ध रह गया।
मैंने तुरंत अपना व्यवहार बदला। “रुको, अंजलि। मुझे माफ करो, मुझे पता नहीं था। तुम यहीं बैठो। अगर तुम चाहो तो अपनी परेशानी मुझे बता सकती हो।”
धीरे-धीरे, एक छात्रा ने बताया कि अंग्रेजी के शिक्षक, श्री मिश्रा ने अंजलि की माँ के बारे में कुछ अपमानजनक टिप्पणी की थी। मैं हैरान रह गया। एक शिक्षक ऐसा कैसे कर सकता है?
मैंने अंजलि और उसकी सहेली को अपने कार्यालय में बुलाया। वहां, मुझे अंजलि की कहानी पता चली। वह अपनी माँ और छोटे भाई के साथ पिछले साल ही लखनऊ से यहाँ आई थी। उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी और वे अलग रहते थे। उसकी माँ अचार और सिलाई का काम करके घर चला रही थीं।
मेरा दिल भर आया। मैंने अंजलि से कहा, “बेटा, तुम्हारी माँ बहुत बहादुर हैं। और तुम भी। तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। मैं तुम्हारी हर संभव मदद करूंगा।”
उस दिन के बाद, मैंने अंजलि को प्रोत्साहित करना शुरू किया। मैं उसे अतिरिक्त समय देता, उसके सवालों के जवाब देता। धीरे-धीरे, उसने पढ़ाई में रुचि दिखानी शुरू की। उसकी आँखों में एक नई चमक आ गई थी।
एक दिन, मैं बाज़ार में अंजलि और उसकी माँ से मिला। उन्होंने मुझे चाय पर आमंत्रित किया। मैं मना नहीं कर सका।
उनका घर छोटा था, लेकिन साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित। अंजलि की माँ, श्रीमती शर्मा, एक सौम्य और विनम्र महिला थीं। उन्होंने मुझे बताया कि वे स्वयं स्नातकोत्तर हैं, लेकिन बच्चों की देखभाल के लिए नौकरी नहीं कर सकतीं।
“आप बहुत बहादुर हैं,” मैंने कहा। “आप अपने बच्चों के लिए इतना कुछ कर रही हैं।”
श्रीमती शर्मा की आँखें नम हो गईं। “धन्यवाद, सिंह साहब। आपने अंजलि को बहुत सहारा दिया है। वह अब पढ़ाई में रुचि लेने लगी है।”
अगले दिन, जब मैं विद्यालय पहुंचा, तो श्री मिश्रा ने मुझ पर व्यंग्य कसा। “अरे वाह, सिंह जी! तो आप भी चाय पीने का शौक रखते हैं? हमें भी कभी साथ ले चलिए।”
मैंने उन्हें करारा जवाब दिया। “मिश्रा जी, जिस चाय की आपको तलब है, वो घरों में नहीं, बाज़ारों में मिलती है। और वहां आप जैसे ‘सम्मानित’ लोग अक्सर जाते रहते हैं।”
मिश्रा जी का चेहरा लाल हो गया। वे बिना कुछ कहे वहां से चले गए।
इस घटना के बाद, मुझे प्रधानाचार्य के कार्यालय में बुलाया गया। प्रधानाचार्य श्री गुप्ता ने मुझ पर आरोप लगाया कि मैं विद्यालय की व्यवस्था बिगाड़ रहा हूँ।
“सिंह जी, आप क्या कर रहे हैं? आपका काम सिर्फ पढ़ाना है, छात्रों से रिश्ते बनाना नहीं। आप किसी छात्रा के घर कैसे जा सकते हैं?”
मैंने शांति से जवाब दिया, “सर, अगर किसी कमजोर छात्रा को सहयोग करना गलत है, तो मैं ऐसी गलती करता रहूँगा। क्या आप जानते हैं कि श्री मिश्रा ने अंजलि और उसकी माँ के बारे में क्या कहा था?”
मैंने उन्हें सारी बात बताई। लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने मुझे चेतावनी दी कि अगर मैंने ऐसा व्यवहार जारी रखा, तो मुझे नौकरी से निकाल दिया जाएगा।
मैंने एक क्षण सोचा, फिर कहा, “सर, मुझे खेद है, लेकिन मैं ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकता जहां छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। मैं स्वेच्छा से अपनी नौकरी छोड़ रहा हूँ।”
मैंने अपना बैग उठाया और विद्यालय से बाहर निकल गया। मन में उदासी थी, लेकिन साथ ही एक संतोष भी था कि मैंने सही के लिए आवाज उठाई।
एक सप्ताह बीता। मैं घर पर था, नई नौकरी की तलाश में। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने खोला तो देखा कि बाहर कई छात्र खड़े थे, उनमें अंजलि भी शामिल थी।
“सर, आपको वापस आना होगा,” एक छात्र ने कहा। “आपके जाने के बाद विद्यालय में बड़ा हंगामा हुआ।”
उन्होंने मुझे बताया कि मेरे इस्तीफे के बाद, कई शिक्षकों और छात्रों ने मेरे पक्ष में आवाज उठाई। उन्होंने श्री मिश्रा के व्यवहार की शिकायत की और मांग की कि मुझे वापस बुलाया जाए।
“प्रबंधन समिति ने मामले की जांच की,” अंजलि ने बताया। “उन्होंने श्री मिश्रा और प्रधानाचार्य गुप्ता दोनों को इस्तीफा देने को कहा है। वे आपको नए प्रधानाचार्य के रूप में चाहते हैं।”
मैं स्तब्ध रह गया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा छोटा सा कदम इतना बड़ा परिवर्तन ला सकता है।
अगले दिन, मैं विद्यालय गया। प्रबंधन समिति के सदस्यों ने मुझसे मुलाकात की और मुझे नए प्रधानाचार्य के रूप में नियुक्त किया।
“हमें आप जैसे शिक्षक की जरूरत है,” उन्होंने कहा। “जो न सिर्फ पढ़ाए, बल्कि छात्रों की परवाह भी करे।”
मैंने यह जिम्मेदारी स्वीकार की, यह वादा करते हुए कि मैं हर छात्र को समान अवसर और सम्मान दूंगा।
आज, दस साल बाद, मैं उस दिन को याद करता हूँ जब मैंने पहली बार अंजलि को देखा था। वह अब एक सफल बैंक अधिकारी है। उसने अपनी मेहनत और दृढ़ संकल्प से यह मुकाम हासिल किया है।
विद्यालय भी बदल गया है। हमने कई नए कार्यक्रम शुरू किए हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों की मदद करते हैं। हम नि:शुल्क कोचिंग प्रदान करते हैं, छात्रवृत्तियां देते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी छात्र पैसे की कमी के कारण शिक्षा से वंचित न रहे।
पिछले हफ्ते, अंजलि विद्यालय आई थी। वह छात्रों से बात करने आई थी, उन्हें प्रेरित करने के लिए। उसने अपनी कहानी सुनाई, अपने संघर्ष के बारे में बताया, और यह भी कि कैसे एक