Ummeed ki Kiran उम्मीद की किरण
सुनीता की आँखों में आँसू थे, पर ये खुशी के आँसू थे। दस लंबे वर्षों के बाद, आखिरकार उसे मां बनने का सौभाग्य मिलने वाला था। उसका पति अनिल भी खुशी से फूला नहीं समा रहा था। निराशा के अंधेरे में आशा की किरण ने दस्तक दी थी।
सुनीता मन ही मन सोच रही थी, “अब कोई मुझे बांझ नहीं कहेगा।” उसने पिछले दस सालों में कितना कुछ सहा था। सोचते-सोचते वह अतीत की यादों में खो गई।
“अरे अनिल की माँ, बेटे की शादी को दो साल हो गए, अब तो पोते-पोती की खुशखबरी सुनाओ!” पड़ोस की औरतें अक्सर सुनीता की सास गीता से कहतीं।
गीता जी हमेशा मुस्कुराकर जवाब देतीं, “अरे बहन, अभी तो बच्चे खुद ही बच्चे हैं। इतनी जल्दी क्या है?”
लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोगों की बातें बदल गईं। मोहल्ले की औरतें गीता जी को ‘बेचारी’ और ‘अभागिन’ कहने लगीं। सुनीता को ‘बांझ’ का ताना मिलने लगा। हालांकि घर में किसी ने कभी कुछ नहीं कहा, पर बाहर की बातें उसे अंदर तक छलनी कर देती थीं।
एक दिन गीता जी ने कहा, “बहू, हमारी पड़ोसन रमा के घर बेटा हुआ है। आज उसकी छठी है। तैयार हो जाओ, हमें जाना है।”
सुनीता ने खुशी से कहा, “जी माँजी, मैं वहाँ खूब सारे लोरी गाऊँगी बच्चे के लिए!”
दोपहर में दोनों सास-बहू रमा के घर पहुंचीं। वहाँ एक औरत ने गीता जी से कहा, “अरे गीता, तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है क्या? इस अभागिन को क्यों लाई हो बच्चे के शुभ अवसर पर?”
गीता जी ने दृढ़ता से जवाब दिया, “मेरी बहू न तो अभागिन है और न ही बांझ। बस थोड़ी समस्या है जिसका इलाज चल रहा है। जल्द ही वो भी माँ बनेगी।”

लेकिन लोगों की कटु टिप्पणियाँ जारी रहीं। सुनीता यह सब सुनकर टूट गई और घर भाग आई। वह भगवान के सामने रोते हुए बोली, “हे भगवान, मेरे साथ ही ऐसा क्यों? क्यों आपने मुझे बांझ बनाया?”
गीता जी ने उसे गले लगाकर समझाया, “नहीं बेटी, तू बांझ नहीं है। ऐसे लोगों की बातों से अपना दिल मत दुखा। एक दिन तेरी गोद भी भरेगी, मुझे अपने कृष्ण पर पूरा भरोसा है।”
सुनीता ने रोते हुए कहा, “माँजी, आप बहुत अच्छी हैं। पर अब बहुत हो गया। आप अनिल की दूसरी शादी करवा दीजिए।”
गीता जी ने प्यार से डाँटते हुए कहा, “आज के बाद ऐसी बात मत करना। अगर बच्चा नहीं हुआ तो हम गोद ले लेंगे, पर मेरी बहू तू ही रहेगी।”
फिर गीता जी ने सुनीता को अपनी कहानी सुनाई। कैसे उन्हें भी शादी के चार साल बाद बेटा हुआ था, और तब तक लोगों ने उन्हें भी कितना कुछ कहा था। उन्होंने वादा किया था कि वे अपनी बहू का हर मोड़ पर साथ देंगी।
उसके बाद गीता जी ने भी शुभ कार्यों में जाना बंद कर दिया, ताकि लोगों की कड़वी बातें सुनीता को न सुननी पड़ें।
और आज, जब डॉक्टर ने सुनीता को गर्भवती होने की खुशखबरी दी, तो वह खुशी से झूम उठी। घर पहुंचकर उसने गीता जी को गले लगा लिया और फूट-फूटकर रोने लगी।
गीता जी ने चिंतित होकर पूछा, “क्या हुआ बेटी? सब ठीक तो है?”
सुनीता ने आँसू पोंछते हुए मुस्कुराकर कहा, “सब ठीक है माँ। अब न तो आप बेचारी हैं, न मैं बांझ। हमारी किस्मत बदल गई है।”
घर में खुशियों का माहौल छा गया। अनिल सुनीता का पूरा ख्याल रखने लगा, और गीता जी तो उसे बिस्तर से उतरने भी नहीं देतीं।
देर से ही सही, पर सुनीता की जिंदगी में खुशियाँ लौट आईं थीं।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि बच्चा न होना किसी औरत के लिए बहुत दुखदायी होता है। ऐसे में कुछ लोग उसे ‘भाग्यहीन’ या ‘बांझ’ कहकर उसके दुख को और बढ़ा देते हैं। यह बहुत गलत है। माँ न बन पाना किस्मत का दोष नहीं, बल्कि एक चिकित्सकीय समस्या है जिसका इलाज संभव है। और अगर इलाज न भी हो, तो भी किसी औरत को इस आधार पर अपशकुन नहीं माना जा सकता। किसी को भी ऐसे ताने देना बहुत गलत है।
हमें समाज में इस तरह की सोच को बदलने की जरूरत है। हर औरत का सम्मान करना चाहिए, चाहे वह माँ बने या न बने। प्यार, समझ और सहयोग से हर मुश्किल का सामना किया जा सकता है। सुनीता और गीता जी की कहानी हमें यही सिखाती है – धैर्य और विश्वास रखने से, एक दिन जरूर सफलता मिलती है।