शहनाई की गूंज और मयूरी का मौन विद्रोह

दिन ढल रहा था। सामने वाले घर से शहनाई की मधुर धुन मयूरी के कानों में गूंज रही थी। कल जहाँ रौनक और चहल-पहल थी, आज वहाँ बेटी की विदाई की तैयारी थी। बालकनी में खड़ी मयूरी उस शादी की रौनक को देख रही थी, पर उसका मन खिन्न था। शहनाई की धुन उसे दो महीने पहले के उस दिन की याद दिला रही थी, जब उसकी अपनी विदाई हुई थी।

आज मयंक, उसका पति, दो हफ़्ते के टूर पर जा रहा था। यह सोचकर ही बेचैनी बढ़ रही थी कि इन दो हफ़्तों में वह इस घर में अकेले कैसे रहेगी? ससुराल आते वक़्त उसने न जाने कितने सपने सँजोए थे, पर यहाँ तो उसे अपनापन कहीं नज़र नहीं आया। सबके चेहरों पर बना नक़ाब उसे पराया ही रखता था। दिन भर घर के कामों में उलझी रहती, पर फिर भी उसे ‘पराया खून’ और ‘पराये घर की बेटी’ ही कहा जाता।

कल की ही तो बात है, जब सब कमरे में बैठे हँसी-मज़ाक कर रहे थे। मयूरी भी उनके साथ बैठना चाहती थी, पर जैसे ही वह कमरे में कदम रखती, सब चुप हो जाते। उस दिन भी उसे किचन में काम करते हुए अकेलापन महसूस हुआ। ऐसा नहीं था कि घर में किसी चीज़ की कमी थी, पर मयूरी की हालत उस टूटी हुई शाखा की तरह थी जिसे पेड़ से अलग कर दिया गया हो।

मयूरी कलाओं में निपुण थी, पर ससुराल वालों ने उसकी इस प्रतिभा को दबा दिया। नृत्य और गायन में उसकी रुचि को ‘इज्ज़तदार परिवार’ के नाम पर कुचल दिया गया। मध्यम वर्गीय परिवार से आई मयूरी को ससुराल में कठपुतली बना दिया गया था। उसे क्या पहनना है, क्या खाना है, किससे मिलना है, यह सब ससुराल वाले तय करते।

यहाँ तक कि उसकी बुनियादी ज़रूरतों का भी ध्यान नहीं रखा जाता। फोन पर बात करने, बाहर जाने, रिश्तेदारों से मिलने पर भी पाबंदी थी। मयंक की थकान का तो सब ख़याल रखते, पर मयूरी की थकान और बीमारी का किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।

आज फिर वही ख्याल उसे घेर रहे थे। शादी के बाद उसका व्यक्तित्व ही बदल गया था। क्या उसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी? क्या शादी औरत की आज़ादी का अंत होती है?

विदाई के वक़्त माँ-बाप की बातें याद आ रही थीं – ‘ससुराल ही तेरा घर है’, ‘पति की आज्ञा का पालन करो’। क्या वह सचमुच अपनी ख़ुशियों को कुर्बान कर देगी? क्या वह इस दास्तां से कभी आज़ाद नहीं हो पाएगी?

समाज के इस ढाँचे पर गुस्सा आ रहा था। एक घर में बेटी की विदाई पर मातम, तो दूसरे घर में जश्न। क्या यही औरत की नियति है?

अचानक सास की आवाज़ ने उसकी सोच की डोर तोड़ दी – “महारानी, खाना कब मिलेगा?” मयूरी ने आँखें पोंछीं और किचन की तरफ़ चल दी। सामने वाले घर में विदाई हो चुकी थी। एक नई कहानी शुरू हो चुकी थी। मयूरी सोच रही थी – क्या यह भी ‘चार दिन की चाँदनी’ ही होगी?

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