Guru Ka Updesh गुरु का उपदेश: एक आत्म-खोज की कहानी
प्राचीन भारत के एक रमणीय पर्वतीय क्षेत्र में, शांतिकुंज नाम का एक विशाल आश्रम था। यहाँ महर्षि दयानंद अपने अनगिनत शिष्यों के साथ रहते थे। आश्रम में कुछ अनुभवी शिष्य शिक्षक की भूमिका निभा रहे थे, जबकि अधिकांश विद्यार्थी ज्ञान की खोज में लीन थे।
इन्हीं विद्यार्थियों में एक था अभिमान। वह एक धनी परिवार से था और अपने आरामदायक जीवन को त्यागकर सत्य की खोज में आश्रम आया था। लेकिन उसके मन में अहंकार का कीड़ा घर कर गया था। वह हमेशा अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझता और उनकी बातों को काटकर अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने की कोशिश करता।
अभिमान हर समय बोलता रहता, चाहे वह भोजनशाला हो या अध्ययन कक्ष। वह अपने सहपाठियों की कमियाँ निकालता और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता। यहाँ तक कि जब वह भिक्षाटन के लिए जाता, तो वहाँ से भी नई-नई कहानियाँ लेकर आता और दूसरों को सुनाकर अपनी वाक्पटुता का प्रदर्शन करता।
एक दिन, महर्षि दयानंद ने आश्रम के सभी शिक्षकों को एकत्र किया और कहा, “आप सभी को अगले एक माह के लिए कोई संकल्प लेना है। यह आपकी आंतरिक शक्ति को बढ़ाएगा।” जब अभिमान को इसके बारे में पता चला, तो उसने भी संकल्प लेने की इच्छा जताई।
महर्षि ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है, तुम अपने साथियों और शिक्षकों से पूछो कि तुम्हें क्या संकल्प लेना चाहिए।” अभिमान ने सबसे पूछा और लौटकर शिकायत की, “गुरुदेव, ये सब मुझे मौन रहने का संकल्प लेने को कह रहे हैं।”
महर्षि ने पूछा, “क्या तुम यह कर पाओगे?” अभिमान ने गर्व से कहा, “निश्चित रूप से! यह तो बहुत आसान है।”
पहले कुछ दिन तो अभिमान को मौन रहना आसान लगा। लेकिन धीरे-धीरे उसके मन में विचारों का तूफान उठने लगा। वह बोलने के लिए तड़पने लगा। चौथे दिन, वह इतना बेचैन हो गया कि उसने खाना-पीना छोड़ दिया।
परेशान होकर वह महर्षि के पास गया और लिखकर पूछा, “क्या मैं अपना संकल्प तोड़ दूँ?” महर्षि ने कहा, “संकल्प तोड़ना आसान है, लेकिन उसे पूरा करना आंतरिक शक्ति का प्रतीक है।”
इन शब्दों से प्रेरित होकर, अभिमान ने अपने संकल्प को जारी रखने का निर्णय लिया। वह आश्रम छोड़कर निकटवर्ती वन में चला गया। वहाँ, प्रकृति के बीच, उसने धीरे-धीरे अपने भीतर की आवाज़ को सुनना शुरू किया।
महीनों बीत गए। आश्रम में सभी अभिमान की चिंता करने लगे। एक दिन, अचानक अभिमान लौट आया। लेकिन यह वही पुराना अभिमान नहीं था। उसके चेहरे पर एक अलग तरह की शांति थी। वह अब कम बोलता था, लेकिन जब बोलता था तो उसके शब्दों में गहराई थी।
महर्षि दयानंद ने सभी को एकत्र किया और कहा, “देखो, अभिमान ने न केवल अपना संकल्प पूरा किया, बल्कि उसने अपने भीतर की आवाज़ को भी सुना। यही सच्चा ज्ञान है।”
फिर उन्होंने सभी को कुछ महत्वपूर्ण सीख दी:
- जब कोई क्रोधित हो या आपको नीचा दिखाए, तो उसे शांति का मार्ग दिखाएँ।
- अपनी अशांति को दूसरों पर न थोपें। इसके बजाय, अपने भीतर शांति खोजें।
- किसी की परेशानी का ऐसा समाधान न निकालें जो दूसरों को हानि पहुँचाए।
- अपनी कमियों को छिपाने के लिए ज्यादा बोलने की बजाय, उन्हें सुधारने का प्रयास करें।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमारी सबसे बड़ी शक्ति हमारे भीतर छिपी है। जब हम अपने अहंकार को त्यागकर, अपने भीतर झाँकते हैं, तो हमें सच्चा ज्ञान मिलता है। मौन रहना केवल न बोलना नहीं है, बल्कि अपने भीतर की आवाज़ को सुनना भी है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि जीवन में संतुलन बनाए रखना, और केवल आवश्यकता पड़ने पर ही बोलना, सच्चे ज्ञानी का लक्षण है।